वो ख़ामुशी है कि ख़ुद से डरा हुआ हूँ मैं पता नहीं किसे आवाज़ दे रहा हूँ मैं कुछ ऐसे ढब से घटा है गए दिनों में चाँद मिरे ये ध्यान पड़ा है कि मिट रहा हूँ मैं पलट रहूँगा अभी घर बहुत उदास न हो पहाड़ियों से गुज़रती हुई सदा हूँ मैं हुई जो शाम तो दिल में उदासियाँ उतरीं चराग़ जलने लगे हैं तो बुझ गया हूँ मैं वही शबाब वही बेकसी कभी पहले गुमान है कि इसी राह से गया हूँ मैं वो एक जिस्म वही कौंदता लपकता जिस्म कि जिस के रंग की निस्बत से जोगिया हूँ मैं कभी कभी मिरे सपनों को छीन लेती है वो इक निगाह कि जिस का लुटा हुआ हूँ मैं लबों पे तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ की बात आते ही हर एक ज़ख़्म पुकारा अभी हरा हूँ मैं कुछ ऐसे ढब से मुझे लोग 'अश्क' कहते हैं कि अपने नाम से बेगाना हो चला हूँ मैं