वो ख़ानुमाँ-ख़राब न क्यूँ दर-ब-दर फिरे जिस से तिरी निगाह मिले या नज़र फिरे राह-ए-जुनूँ में यूँ तो हैं लाखों ही सर-फिरे या-रब मिरी तरह न कोई उम्र भर फिरे रफ़्तार-ए-यार का अगर अंदाज़ भूल जाए गुलशन में ख़ाक उड़ाती नसीम-ए-सहर फिरे साक़ी को भी सिखाते हैं आदाब-ए-मय-कशी मिलते हैं मय-कदे में कुछ ऐसे भी सर-फिरे तर्क-ए-वतन के बा'द ही क़द्र-ए-वतन हुई बरसों मिरी निगाह में दीवार-ओ-दर फिरे रह जाए चंद रोज़ जो बीमार-ए-ग़म के पास ख़ुद अपना दिल दबाए हुए चारा-गर फिरे मैं अपना रक़्स-ए-जाम तुझे भी दिखाऊँगा ऐ गर्दिश-ए-ज़माना मिरे दिन अगर फिरे मेरी निगाह में तो ग़ज़ल है उसी का नाम जिस की रगों में दौड़ता ख़ून-ए-जिगर फिरे क़ैद-ए-ग़म-ए-हयात भी क्या चीज़ है 'फ़ना' राह-ए-फ़रार मिल न सकी उम्र-भर फिरे