वो किसी तौर किसी लम्हा नज़र भी आते ज़िंदा होते तो कभी लौट के घर भी आते आसमाँ हम पे अगर नज़्र-ए-इनायत करता ख़ैर-मक़्दम के लिए शम्स-ओ-क़मर भी आते जिन के किरदार की ख़ुशबू से महकती है फ़ज़ा ऐसे मेहमान कभी तो मिरे घर भी आते मैं अगर होता ज़मीं-ज़ादों के लश्कर में शरीक मेरे रस्ते में समुंदर भी भँवर भी आते मेरी बे-लौस मोहब्बत का तक़ाज़ा है यही मुझ से मिलने वो कभी तो मिरे घर भी आते बादशाही से अदावत सी रही है वर्ना कुछ इलाक़े तो मिरे ज़ेर-ए-असर भी आते सब्र से तुम ने अगर काम लिया होता 'रियाज़' ग़म के पेड़ों पे मसर्रत के समर भी आते