वो कितना दिल-नशीं कितना हसीं है उसे भी इस का अंदाज़ा नहीं है तसव्वुर में कोई ज़ोहरा-जबीं है निगाहों में हर इक मंज़र हसीं है मोहब्बत हो गई पाकीज़ा या'नी कोई अरमान अब दिल में नहीं है नज़र आता नहीं अपने को मैं ख़ुद ये क्या सहर-ए-निगाह-ए-अव्वलीं है मैं क्या जाऊँ अब उस के आस्ताँ पर जबीं सज्दों के क़ाबिल ही नहीं है ये मेराज-ए-तसव्वुर है कि वो अब नज़र के सामने है और नहीं है वो मंज़िल आ गई दीवानगी की न दामन है न जेब-ओ-आस्तीं है किसी को कम किसी को है ज़ियादा है कौन ऐसा कि जिस को ग़म नहीं है मुक़द्दर पर हूँ मैं ऐ 'नूर' नाज़ाँ दर-ए-जानाँ है और मेरी जबीं है