वो कोई जादूई तख़्लीक़ नज़र आती है दूर से भी मुझे नज़दीक नज़र आती है जिस से खिलता है बयाबाँ में गुलों का मौसम हुस्न-ए-जानाँ में वो तहरीक नज़र आती है है मोहब्बत में उजाला ही उजाला लेकिन ये गुफा दूर से तारीक नज़र आती है आप क्यों हिज्र के टॉपिक पे परेशाँ हो जी क्या कहीं पर कोई तश्कीक नज़र आती है नज़्म हो या हो ग़ज़ल या कोई प्यारी तस्वीर नस्ल-ए-गौहर ही की तख़्लीक़ नज़र आती है आज-कल मैं भी परेशाँ हूँ मिरे पेपर हैं आज-कल वो भी बहुत वीक नज़र आती है हाथ फैलाऊँ तो आता है नज़र हाल मिरा हाथ बाँधूँ तो मुझे भीक नज़र आती है और अब कुछ भी नहीं ठीक से दिखता मुझ को यार लेकिन तू मुझे ठीक नज़र आती है