वो माहिर-ए-ज़बान-ओ-बयाँ माहिर-ए-सुख़न ग़ालिब के हम-नवा वो शनासा-ए-इल्म-ओ-फ़न तासीर थी ज़बाँ में तो गुफ़्तार पुरकशिश अब भी मुझे है याद वो लहजे का बाँकपन आबिद मोअल्लिमी को इबादत समझते थे तहक़ीक़ थी अमामा तो तन्क़ीद पैरहन ख़ुद उन ही के जलाए चराग़ों के नूर से इल्म-ओ-अमल की आज भी रौशन है अंजुमन