वो मार देगा अगर ख़ंजर-ए-तबस्सुम से

वो मार देगा अगर ख़ंजर-ए-तबस्सुम से
तो गुनगुनाउँगा कैसे ग़ज़ल तरन्नुम से

सजी है तेरे लिए काएनात-ए-शेर-ओ-सुख़न
ग़ज़ल ये मेरी है मंसूब जान-ए-मन तुम से

क़ज़ा नमाज़-ए-मुहब्बत न हो किसी सूरत
अगर वुज़ू नहीं मुमकिन तो पढ़ तयम्मुम से

तू बा-हुनर है कि है बे-हुनर मिरे जैसा
ये राज़-ए-बस्ता खुलेगा तिरे तकल्लुम से

शनावरी का हुनर ही मुझे नहीं आता
बचाऊँ कैसे तुझे बहर-ए-पुर-तलातुम से

मिरे लिए तो मिरे घर का हौज़ काफ़ी है
करूँगा क्या भला लोगो मैं बहर-ओ-क़ुल्ज़ुम से

यज़ीद-ए-वक़्त की नींदें हराम होती हैं
हुसैन अब भी तिरे इज्तिमा-ए-चेहलुम से

सितारा उस के मुक़द्दर का जब नहीं चमका
उठा है दुश्मनी करने वो बज़्म-ए-अंजुम से

मिरे सफ़ीना-ए-हस्ती के नाख़ुदा तुम हो
ये डगमगा नहीं सकता किसी तलातुम से

किसी के साथ मुझे देख कर किसी ने कहा
ये बेवफ़ाई की उम्मीद तो न थी तुम से

नमाज़-ए-इश्क़ ख़ुदा की अदाएगी के लिए
ज़मीं पे आएगा कोई फ़लक चहारुम से

ये लफ़्ज़ सुनते ही महबूब याद आते हैं
जभी तो उन्स है इस दिल को लफ़्ज़-ए-पंजुम से

क़दम क़दम पे जहालत उसे सताएगी
जो दूर हो गया ता'लीम और तअल्लुम से

मुझे है जल्दी मुझे और कहीं भी जाना है
कहा ये उस ने कि मैं कल मिलूँगा फिर तुम से

उसी समाज के अफ़राद संग-दिल निकले
समाज ख़ाली था जो जज़्बा-ए-तरह्हुम से

ख़ुशी से लौटना अपने वतन को ऐ 'नूरी'
हुआ जो फ़ारिग़-ए-तहसील हौज़ा-ए-क़ुम से


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