वो मिले हैं मगर मलूल हैं हम जो ख़िज़ाँ में खिले वो फूल हैं हम हम को ज़ुल्मत-पनाह मत जानो इक नई सुब्ह के रसूल हैं हम इस तवज्जोह का क्या ठिकाना है तेरी पहली नज़र की भूल हैं हम तिश्नगी तो हमें क़ुबूल न थी तिश्नगी को मगर क़ुबूल हैं हम उस बदलती निगाह से पूछो इश्क़ का मो'तबर उसूल हैं हम कितने बे-कैफ़ किस क़दर बे-रंग किस की तख़्लीक़ का हुसूल हैं हम प्यार की चाँदनी में खिलते हैं दश्त-ए-इंसानियत के फूल हैं हम ज़िंदगी ने कहा उजाला हैं मौत ने जब कहा फ़ुज़ूल हैं हम आज भी मीर-ए-कारवाँ तुम हो आज भी रहगुज़र की धूल हैं हम