वो मुझ को देख न पाए मैं मुस्तक़िल देखूँ सितारा जैसे कोई दूर जगमगाए कभी बनूँ मैं लहर कभी और वो मेरा साहिल हो मैं उस को ढूँडने जाऊँ वो मुझ को पाए कभी ग़ुबार-ए-राह की वहशत हवा पे लिक्खी थी मगर ये लोग वो तहरीर पढ़ न पाए कभी तुम्हारे शहर से इज़्ज़त जुनूँ की जाती है घरों पे शीशे लगाओ कि संग आए कभी यही दुआ है मिरी बस कि मेरे रब्ब-ए-अज़ीम गया है अब जो मुसाफ़िर तो लौट आए कभी