वो न पहचाने ये ख़दशा सा लगता रहता है रुख़ पे उस के नया चेहरा सा लगा रहता है अपने घर में भी तो है चैन से सोना मुश्किल छत न गिर जाए ये खटका सा लगा रहता है वो ज़मीं ख़ाक उगाएगी अदावत के सिवा प्यार पर जिस जगह पहरा सा लगा रहता है भीड़ छटती नहीं इस कल्बा-ए-अहज़ाँ से कभी आरज़ूएँ हैं कि मेला सा लगा रहता है साफ़ कितना ही करें दामन-ए-क़ातिल को हलीफ़ लौह-ए-तारीख़ पे धब्बा सा लगा रहता है तेरे आने की ख़ुशी भी नहीं होती 'परतव' तू चला जाएगा धड़का सा लगा रहता है