वो नख़्ल जो बार-वर हुए हैं आशोब-ए-ख़िज़ाँ से डर रहे हैं शाख़ों पे तीर के ज़ख़्म हैं ये या फिर से गुलाब झाँकते हैं ज़ुल्मत में बहुत ही याद आए वो चाँद जो हम-सफ़र रहे हैं ले दस्त-ए-हवस ये फूल तेरे काँटे तो वफ़ा ने चुन लिए हैं बदला न नविश्ता-ए-मक़्दूर मक्तूब तो हम ने भी लिखे हैं पामाल-ए-जहाँ हुए कि हम ने कुछ ख़्वाब जहाँ को भी दिए हैं टूटी है कहीं सदा की ज़ंजीर हल्क़े से ख़याल के पड़े हैं सहरा का सुकूत कह रहा है शहरों के चराग़ बुझ गए हैं ऐ इश्क़-ए-जुनूँ-शिआर तेरे दुनिया में अजीब सिलसिले हैं चमकी है जो सरनविश्त-ए-आदम तहज़ीब के नक़्श बन गए हैं आफ़ाक़ की वुसअतों से आगे कुछ और चराग़ जल उठे हैं इंसाँ का शुऊर कह रहा है इंसाँ ने बहुत से दुख सहे हैं