वो परी ही नहीं कुछ हो के कड़ी मुझ से लड़ी आँख नर्गिस से भी दो-चार घड़ी मुझ से लड़ी वास्ते तेरे मिरा रंग-महल है दुश्मन तेरी ख़ातिर तो हर इक छोटी बड़ी मुझ से लड़ी झड़ लगा दी मिरी आँखों ने तो लो और सुनो टुकटुकी बाँध के क्यूँ मुँह की झड़ी मुझ से लड़ी रात लड़-भिड़ वो जो चुप हो रही तो उन के एवज़ बोलते थे वो जो सोने की घड़ी मुझ से लड़ी बैठे बैठे कहीं बुलबुल को जो छेड़ा मैं ने तो नसीम उस की बदल हो के खड़ी मुझ से लड़ी कौन सी हूर यहाँ खेलने चौथी आई बू-ए-गुल ले के जो फूलों की छड़ी मुझ से लड़ी रूठ कर उन की गली में जो लगा तू 'इंशा' हर इक उस दो लड़ी मोती की लड़ी मुझ से लड़ी