खटकते हैं निगाह-ए-बाग़बाँ में जो हैं दो-चार तिनके आशियाँ में हर इक सख़्ती में आलम नज़्अ' का था हमारी उम्र गुज़री इम्तिहाँ में छुड़ा ले सज्दा करने में न कोई लगे हैं लाल संग-ए-आस्ताँ में शरारे हैं मिरे नालों के क़ाएम कि तारे जड़ दिए हैं आसमाँ में क़रीब अब फ़स्ल-ए-गुल शायद है सय्याद मज़ा आने लगा मेरी फ़ुग़ाँ में तरस आता नहीं मुझ पर किसी को मैं फ़रियाद-ए-जरस हूँ कारवाँ में असर मय का है या तौबा का नासेह कि तल्ख़ी सी है कुछ अब तक ज़बाँ में तड़पने वालों में भी तफ़रक़े है क़फ़स में हम हैं बिजली आशियाँ में किसी से छूट कर आलम है कुछ और पड़ा है तफ़रक़े सा जिस्म-ओ-जाँ में 'रियाज़' उस्ताद ने रुत्बा ये बख़्शा हमारी धूम है हिन्दोस्ताँ में