वो पेच-ओ-ख़म जहाँ की हर इक रहगुज़र में है ख़ुद कारवान-ए-वक़्त भी अब तक सफ़र में है यारो कहाँ वो जल्वा-ए-शम्स-ओ-क़मर में है जो नूर जो ज़िया मिरे दाग़-ए-जिगर में है है वादा-ए-विसाल-ए-सनम की वो सरख़ुशी हर शय हसीन अब मिरी फ़िक्र-ओ-नज़र में है मंज़िल बग़ैर तय किए लेता नहीं हूँ चैन ये दम ये हौसला ही कहाँ राहबर में है कुछ ग़म नहीं कि हो मिरी हद्द-ए-नज़र से दूर लेकिन तुम्हारी याद तो क़ल्ब-ओ-जिगर में है हर बहर हर ज़मीन में कहता हूँ ख़ूब शे'र कब ये कमाल अब किसी अहल-ए-हुनर में है जिस से अयाँ हो दहर का एहसास-ए-बे-रुख़ी आईना वो 'जमाल' हमारी नज़र में है