वो सच के चेहरे पे ऐसा नक़ाब छोड़ गया रुख़-ए-हयात पे जैसे अज़ाब छोड़ गया नतीजा कोशिश-ए-पैहम का यूँ हुआ उल्टा मैं आसमान पे मौज-ए-सराब छोड़ गया वो कौन था जो मिरी ज़िंदगी के दफ़्तर से हुरूफ़ ले गया ख़ाली किताब छोड़ गया बहार बन के वो आया गया भी शान के साथ कि ज़र्द पत्तों पे रंग-ए-गुलाब छोड़ गया मिरे लहू में जो आया था मेहमाँ बन कर मिरी रगों में वो इक आफ़्ताब छोड़ गया गया तो साथ वो लेता गया हर इक नग़्मा ख़ला की गोद में टूटा रुबाब छोड़ गया मिला न जज़्बा-ए-तश्कीक को लिबास कोई वो हर सवाल का ऐसा जवाब छोड़ गया बिखेरता है 'करामत' जो दर्द की किरनें वो ख़्वाब ज़ेहन में इक माहताब छोड़ गया