वाबस्ता-ए-दाम-ए-होश-ओ-ख़िरद हंगामा-ए-वहशत करना है ता'मीर के रंगीं फूलों से तख़रीब का दामन भरना है फिर अज़्म-ए-तक़ाज़ा देना है जज़्बात-ए-शिकस्ता-फ़ितरत को उभरे हुए शोर-ए-तूफ़ाँ की हर मौज को साहिल करना है वो फ़ितरत-ए-ज़ौक़-ए-अज़्म ही क्या जो ग़ैर पे तकिया कर बैठे किस काम का ऐसा जीना है किस काम का ऐसा मरना है तूफ़ान से टकराने वाले अंदाज़ा-ए-तूफ़ाँ क्या मा'नी अब क़ुव्वत-ए-बाज़ू पर तुझ को अपने ही भरोसा करना है कोशिश है ये अपनी शाम-ओ-सहर हर शाख़ नशेमन हो जाए बिजली के इशारे कहते हैं ताराज चमन को करना है वो अज़्म नहीं वो बात नहीं वो सुब्ह नहीं वो शाम नहीं मरने के लिए जीते थे कभी जीने के लिए अब मरना है वाबस्ता-ए-दौर-ए-रंज-ओ-अलम है राह-ए-मोहब्बत की मंज़िल 'मुश्ताक़' क़दम इस मंज़िल में अब सोच समझ कर धरना है