वफ़ा की राह में दुश्वार गो सफ़र भी नहीं हज़ार सहल सही लेकिन इस क़दर भी नहीं मह-ओ-नुजूम की दुनिया सजी हुई है मगर फ़साना ग़म का मिरे इतना मुख़्तसर भी नहीं जुदा मैं ख़ुद से करूँ तुझ को किस तरह उम्मीद तिरे सिवा तो मिरा कोई हम-सफ़र भी नहीं ये कैसा दश्त है कैसा सफ़र है मुद्दत से सुलगती रेत नहीं धूप का शजर भी नहीं ज़बाँ से अपनी कहूँ दिल पे जो गुज़रती है वो बे-ख़बर ही सही इतने बे-ख़बर भी नहीं जो ज़ख़्म खाए हैं 'सत्तार' वो दिखाऊँ भी वफ़ा-शनास नहीं हूँ तो बे-हुनर भी नहीं