वफ़ा की राह में जो नक़्द-ए-जाँ लुटा आए लब-ए-ज़माना ने वो चंद नाम दोहराए जब इक भी लम्हा ख़ुशी का न अपने पास आए ख़ुदा बचाए हम इस ज़िंदगी से भर पाए तुलू-ए-सुब्ह-ए-मोहब्बत का इंतिज़ार रहा मगर वतन में तो कुछ और बढ़ गए साए फ़ुतूर-ए-निय्यत-ए-साक़ी से निभ न सकती थी हम अपने जाम को मयख़ाने ही में तोड़ आए ख़राब हाल थे फिर भी बचाई ख़ुद-दारी न हाथ जोड़े कहीं और न हाथ फैलाए हज़ार हैफ़ कि दिल के कहे को टाल दिया उस एक भूल पे हम लाख बार पछताए अजीब बात है अपनों ने की न कुछ भी मदद जो ग़ैर थे वही बढ़ चढ़ के मेरे काम आए ख़ुदा-ए-पाक ने कर ली क़ुबूल मेरी दुआ जब अश्क बहते गए और होंट थर्राए हर एक शख़्स को दा'वा है होश-मंदी का ये हाल हो तो भला कौन किस को समझाए जहाँ से उठ गए ‘जोश’-ओ-‘जिगर’ से 'अनवर' से कोई जो लाए तो अर्ज़-ए-हुनर को क्या लाए जदीद दौर-ए-ज़वाल-ए-ग़ज़ल में भी 'मग़मूम' हमीं ने हुस्न-ए-तग़ज़्ज़ुल के फूल बरसाए