वफ़ा ना-आश्नाओं में वफ़ा की जुस्तुजू कब तक दिल-ए-सादा मुझे रुस्वा करेगा कू-ब-कू कब तक हुआ है चाक जिन हाथों से उम्मीदों का पैराहन उन्हीं हाथों को हम देते रहें दाद-ए-रफ़ू कब तक बहर-सूरत दुआओं पर मुक़द्दम है अमल ज़ाहिद ख़मीदा-सर कहाँ तक हाथ मसरूफ़-ए-वुज़ू कब तक हमें अपना मुक़द्दर अपने हाथों से बनाना है कहाँ तक ख़ुद-फ़रामोशी फ़रेब-ए-आरज़ू कब तक बहारों को तरस जाएगा गुलशन हम न कहते थे ख़िज़ाँ-पर्वर्दा हाथों में जहान-ए-रंग-ओ-बू कब तक कहाँ तक इस्मतें नीलाम होंगी बे-सहारों की बहेगा शाह-राहों पे ग़रीबों का लहू कब तक ज़मीं फट जाए या सर पर बला-ए-आसमाँ टूटे ज़बाँ भी खोलिए 'फ़रहत' नज़र से गुफ़्तुगू कब तक