वफ़ा-ए-दोस्ताँ कैसी जफ़ा-ए-दुश्मनाँ कैसी न पूछा हो किसी ने जिस को उस की दास्ताँ कैसी कुछ ऐसा एहतिराम-ए-दर्द-ए-उल्फ़त है मिरे दिल को ख़मोशी हुक्मराँ है आह ओ फ़रियाद ओ फ़ुग़ाँ कैसी किसी को फ़िक्र-ए-आजादी नहीं इस क़ैद-ए-रंगीं से दिल-ए-आलम पे है छाई हुई मोहर-ए-बुताँ कैसी भुला ही देते हैं उस को जो गुज़रा बज़्म-ए-आलम से है सब को अपनी अपनी फ़िक्र याद-ए-रफ़्तगाँ कैसी तुम्हारा मुद्दआ ही जब समझ में कुछ नहीं आया तो फिर मुझ पर नज़र डाली ये तुम ने मेहरबाँ कैसी अभी होते अगर दुनिया में 'दाग़'-ए-देहलवी ज़िंदा तो वो सब को बता देते है 'वहशत' की ज़बाँ कैसी