वफ़ाएँ करके जफ़ा-कशों में शुमार आया तो मैं ने देखा कि साफ़-शफ़्फ़ाफ़ आइनों पर ग़ुबार आया तो मैं ने देखा न कर्ब का हो क़यास जिस में न साथ हो ग़म-शनास जिस में नज़र के बाहर का वो सफ़र भी गुज़ार आया तो मैं ने देखा तमाम गुल मेरे रू-ब-रू थे कि पाँव मेरे लहू लहू थे जो क़र्ज़ काँटों की रहबरी का उतार आया तो मैं ने देखा ज़बाँ पे हर्फ़-ओ-सदा नहीं है किसी भी लब पर दुआ नहीं है हर एक इंसाँ ज़मीर अपना जो हार आया तो मैं ने देखा उसी के विर्से में रहबरी है उसी के हिस्से में ज़िंदगी है जो कार-साज़-ए-अमल का मैदान मार आया तो मैं ने देखा