वफ़ूर-ए-शौक़-ए-जल्वा में दुआ को भूल जाते हैं मोहब्बत करने वाले तो ख़ुदा को भूल जाते हैं उसूलों पर जहाँ भी मस्लहत तरजीह पाती है वहीं अहल-ए-ग़रज़ अपनी वफ़ा को भूल जाते हैं हज़ारों ठोकरें मिलती हैं हम को दहर-ए-फ़ानी में अगर दुनिया में हम तेरी रज़ा को भूल जाते हैं मोहब्बत करने वाले तो जहाँ में अपने दिलबर की वफ़ा को याद रखते हैं जफ़ा को भूल जाते हैं ख़ुदा का नाम यूँ रखते तो हैं विर्द-ए-ज़बाँ वाइज़ तमाशा है मगर अहल-ए-ख़ुदा को भूल जाते हैं वफ़ूर-ए-ज़र वफ़ूर-ए-ऐश में तो बारहा 'रौशन' बहुत से लोग ऐसे हैं ख़ुदा को भूल जाते हैं