वही इज्ज़-ए-बंदगी है वही नाज़-ए-आस्ताना मैं यक़ीन कैसे कर लूँ कि बदल गया ज़माना ये हमारा हक़ है लोगो ये हमारी ज़िद नहीं है जो ये गुल्सिताँ रहेगा तो रहेगा आशियाना ये बहार का है मौसम मगर इस को क्या कहें हम अभी अंदलीब-ए-गुलशन की नवा है बाग़ियाना मिरी अज़्मत-ए-वफ़ा से भी वो मुतमइन नहीं हैं वही जिस के जौर-ए-पैहम का है मो'तरिफ़ ज़माना मुझे तज्रबात-ए-ग़म ने ये अदा सिखाई 'जौहर' न किसी से दुश्मनी है न किसी से दोस्ताना