उलझे हुए दिन खोई हुई रात न होती ऐ काश मिरी तुम से मुलाक़ात न होती आदाब-ए-वफ़ा का जो मैं पाबंद न होता वल्लाह कि ये सूरत-ए-हालात न होती तुम ग़म का लब-ओ-लहजा समझ ही नहीं पाए वर्ना कभी इस दर्जा बढ़ी बात न होती दिल खोल के तारों से में कहता था कहानी होती बड़ी रुस्वाई अगर रात न होती सब कुछ मैं समझ बैठा तिरी याद को वर्ना उजड़ी हुई फ़िरदौस-ए-ख़यालात न होती दर-अस्ल ख़ता है ये मिरे ज़ौक़-ए-नज़र की वर्ना तुम्हें तकलीफ़-ए-हिजाबात न होती तुझ से ग़म-ए-दौराँ ही भला ऐ ग़म-ए-जानाँ इस तरह तो बर्बादी-ए-जज़्बात न होती कम-ज़र्फ़ भी आ निकले हैं मयख़ाने की जानिब इस से तो ये अच्छा था कि बरसात न होती दिल ग़म से है बेज़ार मगर ये जो न होता 'जौहर' कभी तकमील-ए-कमालात न होती