वही जोश-ए-हक़-शनासी वही अज़्म-ए-बुर्द-बारी न बदल सका ज़माना मिरी ख़ू-ए-वज़ा-दारी वही मय-कदा है लेकिन नहीं अब वो कैफ़-बारी गए हम मज़ाक़ ले के मिरा लुत्फ़-ए-बादा-ख़्वारी हो ज़बान जिस के मुँह में वो न आए अंजुमन में कहीं रख न दे सितम-गर यही शर्त-ए-राज़-दारी कभी हँसते हँसते रोना कभी रोते रोते हँसना कोई क्या समझ सकेगा भला मस्लहत हमारी मैं ज़माने भर के ता'ने न ख़मोश हो के सुनता जो जुनून-ए-इश्क़ होता मिरा फ़े'ल-ए-इख़्तियारी मय-ए-आशिक़ी से तौबा है जुनून-ए-पारसाई कहीं ले न डूबे वाइ'ज़ तुझे ज़ो'म-ए-होशियारी न पहुँच सका जहाँ तक कभी पा-ए-किब्र-ओ-दानिश वहीं 'जुर्म' ले गई है मुझे मेरी ख़ाकसारी