वही मक़ाम जहाँ गुम हुई थी ज़ात मिरी उसी मक़ाम से उभरेगी काएनात मिरी किसी के शौक़-ए-सफ़र ने मुझे मुक़ीम किया ठहर ठहर के गुज़रने लगी है रात मिरी उरूस-ए-फ़िक्र की दोशीज़गी सलामत है हज़ार बार सुहागन हुई हयात मिरी ज़माना ज़ीस्त के उनवाँ बदल चुका लेकिन हर एक बात से निकली वहाँ भी बात मिरी फ़लक से टूट के जब भी ज़मीं पे आए हैं रक़म किया है सितारों ने वारदात मिरी तुम्हारे नाम से सर पे सजा लिया जिस को सिमट गई उसी आँचल में काएनात मिरी