वहशत बरस रही है दिवाने की आँख से परखा है उस ने सच को फ़साने की आँख से मैं मुनफ़रिद नहीं तो ज़रा मुख़्तलिफ़ तो था देखा है तू ने मुझ को ज़माने की आँख से घाव मिरे बदन पे नहीं रूह पर भी हैं फेंका था उस ने तीर निशाने की आँख से चारों तरफ़ है एक ही सूरत सजी हुई दुनिया को देख आइना-ख़ाने की आँख से होने पे अपने ज़ो'म था मुझ को 'सफ़ी' मगर अब देखता हूँ ख़ुद को बहाने की आँख से