वहशत के सिवा कुछ न मिला दर-बदरी से बाज़ आए मोहब्बत की हम आशुफ़्ता-सरी से औरों की तरह मुझ को न दीवाना पुकारो तुम तो हो ख़बर-दार मिरी बे-ख़बरी से ग़ालिब है ज़माने में उजाले पे सियाही हर सम्त अंधेरा है तिरी जल्वागरी से मुमकिन हो तो कर लीजिए वहशत का मुदावा दामन कहीं बच पाएगा इस बख़िया-गरी से हम ही नहीं था सारा ज़माना तिरा लेकिन कुछ भी न मिला तुझ को तिरी कम-नज़री से उन आँखों को तू ने भी कहा नर्गिस-ए-बीमार बाज़ आए 'उमर' हम तो तिरी दीदा-वरी से