फूल वो दे कर मुझे काँटों का गुलशन दे गया एक लम्हे का सुकूँ सदियों की उलझन दे गया कम-निगाही थी मिरी या सादा-लौही क्या कहूँ ले के वो सोना मिरा पीतल के कंगन दे गया वो कोई मुंसिफ़ न था जो दे के मेरा घर तुम्हें सदियों सदियों के लिए आपस की अन-बन दे गया साज़िशों की ज़द में है शैख़-ए-हरम की ज़िंदगी ये ख़बर चुपके से इक बूढ़ा बरहमन दे गया मुस्तक़िल रहता है मेरे साथ साए की तरह एक मुबहम ख़ौफ़-ए-जाँ जो मेरा दुश्मन दे गया हम-सफ़र भी लूट लेता है मुसाफ़िर को कभी ये सबक़ मुझ को 'उमर' ख़ुद मेरा रहज़न दे गया