वक़्त हम यूँ गुज़ार लेते हैं जैसे मुफ़्लिस उधार लेते हैं टूट जाए न दिल मुक़ाबिल का जीत पा कर भी हार लेते हैं अपने हिस्से के फूल दे के उन्हें उन के हिस्से का ख़ार लेते हैं कर के तन्हा समाज से ख़ुद को क़र्ज़ दिल का उतार लेते हैं जब न तक़्सीम घर की हो हम से ज़लज़लों को पुकार लेते हैं उन का वा'दा फ़रेब है फिर भी जाने क्यों बार बार लेते हैं बे-क़रारी अता हुई जिन से हम उन्ही से क़रार लेते हैं वो बहारें लुटा रहे हैं चलो अक्स दिल में उतार लेते हैं खाल ज़िंदा शिकार की अक्सर हुस्न वाले उतार लेते हैं दिल के अरमाँ न मार दे कोई हम उन्हें ख़ुद ही मार लेते हैं हम से मुनकिर-नकीर शाम-ओ-सहर चाहतों का शुमार लेते हैं