वक़्त का ज़ालिम अंधेरा छा गया तदबीर पर बस कहाँ चलता है कुछ इंसान का तक़दीर पर यास में डूबी हैं आँखें और पज़मुर्दा से लब आप देखेंगे तो हँस देंगे मिरी तस्वीर पर आप के मक्तूब से ज़ख़्मों के लब फिर खुल गए शुक्रिया-सद-शुक्रिया इस शोख़ी-ए-तहरीर पर मैं अगर महफ़िल में उस की हो गया रुस्वा तो क्या आप तो ख़ुश हो गए ऐ दोस्त इस तहक़ीर पर मुफ़लिसी दीवानगी आवारगी मेरा नसीब दंग हूँ लोगो सुहाने ख़्वाब की ता'बीर पर मैं अगर बद-नाम हो जाऊँ तो मेरा है भला क्या मिलेगा तुम को मेरी मुफ़्त की तश्हीर पर दिल की बस्ती में हैं गरचे आरज़ूओं के खंडर फिर भी हूँ 'शहज़ाद' नाज़ाँ अपनी इस जागीर पर