ज़िंदगी जेहद-ए-मुसलसल और सिला कुछ भी नहीं जी रहा हूँ जैसे जीने का मज़ा कुछ भी नहीं और होंगे जिन को मिलता है वफ़ाओं का सिला याँ तो सब कुछ खो दिया लेकिन मिला कुछ भी नहीं सह रहा हूँ कब से ना-कर्दा गुनाहों का अज़ाब ऐ ख़ुदा कैसे कहूँ मेरी ख़ता कुछ भी नहीं गर्दिश-ए-हालात से बस फड़फड़ा उट्ठे हैं लब आप ये सच जानिए कि मुद्दआ' कुछ भी नहीं मैं ने ऐ 'शहज़ाद' दुनिया भर को सब कुछ ही दिया पर ये दुनिया कैसी है इस ने दिया कुछ भी नहीं