वक़्त सोचों की मसाफ़त का सिला भी देगा दश्त-ए-इम्काँ किसी मंज़िल का पता भी देगा जिस ने तारीक गुफाओं का सफ़र बख़्शा है वही अफ़्कार ओ तख़य्युल को ज़िया भी देगा मैं भला कौन कि अंदेशा-ए-फ़र्दा में घुलूँ खेतियाँ जिस ने उगाई हैं घटा भी देगा इस तवक़्क़ो पे क़दम हो गए पत्थर शायद इक दरीचा मुझे धीरे से सदा भी देगा हाए वो शख़्स कि जी भर के सताएगा मुझे और फिर चैन से सोने की दुआ भी देगा मुझ को झुटलाएगा तरदीद करेगा मेरी दोस्त है जुर्म-ए-रिफ़ाक़त की सज़ा भी देगा