वारफ़्तगी के साथ मुहाबा भी बहुत है इज़हार-ए-तअ'ल्लुक़ भी है इख़्फ़ा भी बहुत है जब नींद के सुरमे को तरस जाती हैं आँखें उन रातों में ख़्वाबों की तमन्ना भी बहुत है वो इक वरक़-ए-सादा जो सौंप आए थे तुझ को उस पर तिरी नम आँखों का इमला भी बहुत है आँखों के कटोरे हों या साग़र हों लबों के दिल ख़ुश हो तो मिट्टी का सकोरा भी बहुत है इंकार से ज़ाहिर है कि समझे तो हैं कुछ बात जाना कि ये जाना तो ये जाना भी बहुत है वो नुक्ता जिसे कहने का यारा नहीं दिल को उस के लिए तहरीर का पर्दा भी बहुत है आवाज़ों के अम्बोह में इक लफ़्ज़ न पाया यूँ कहने को ख़ुश-वक़्ती में पाया भी बहुत है कुछ उन को तअम्मुल सा है कुछ हम को तकल्लुफ़ अब ये भी तअल्लुक़ है तो इतना भी बहुत है जब शहर-ए-तमन्ना में दर-ओ-बाम हों ख़ामोश एहसास को तन्हाई का सहरा भी बहुत है रू-गर्दां हैं अब वो भी तो क्या शब न कटेगी 'तारिक़' तुम्हें तो सुब्ह का तारा भी बहुत है