तन्हाई थी हवा थी साकित थी पूर्ण-मासी बस दिल से आ रही थी मौहूम इक सदा सी वस्ल-ओ-फ़िराक़ दोनों इक कैफ़ियत के पहलू इक आरज़ी ख़ुशी सी इक दाइमी उदासी टेसू के फूल सा था चेहरा सवाद-ए-शब में गुल-आफ़्ताब निकला तो रंग था कपासी उस को पता नहीं है क्या शय है सर्द-मेहरी छाई हुई है दिल पर घनघोर इक घटा सी इक हम-नशीं का चेहरा बदला हुआ सा देखा चेहरे पे शर्म सी थी आँखों में थी दग़ा सी वो जिस्म के अलावा कुछ और भी तो होती बंगला की प्रेम-दासी मंदिर की देव-दासी फ़िल्मों ने चश्म-ए-दिल को वीरान कर दिया है आँखों में काश उतरती 'तारिक़' ज़रा हया सी