वसीले कामरानी के हुसूल-ए-ज़र में रक्खे हैं

वसीले कामरानी के हुसूल-ए-ज़र में रक्खे हैं
कि सीधे रास्ते भी तो किसी चक्कर में रक्खे हैं

मिरे दुश्मन को मुझ पर वार करने की ज़रूरत क्या
उसे मालूम है क्या लोग इस लश्कर में रक्खे हैं

मुझे रक्खा तो रक्खा शक भरी नज़रों के पहरे में
जो दुश्मन थे मिरे यारों ने अपने घर में रक्खे हैं

जो आँखों को नहीं हस्ब-ए-ज़रूरत देखने देते
कुछ ऐसे आइने भी धूप के मंज़र में रक्खे हैं

कई असरार हैं खुलते नहीं जो ज़ेहन-ए-आदम पर
कई नुक्ते हैं जो तफ़्हीम-ए-ख़ैर-ओ-शर में रक्खे हैं

यहाँ बस एक ईमाँ की ही गुंजाइश नहीं निकली
हज़ारों वसवसे यूँ तो दिल-ए-काफ़िर में रक्खे हैं

अब इतना ज़ोर से भी चीख़ना अच्छा नहीं लगता
क़यामत ही सही गो अर्सा-ए-महशर में रक्खे हैं

गवाही कौन देने आएगा ऐसी अदालत में
कटहरे भी जहाँ क़ातिल ने अपने घर में रक्खे हैं

और अब सज्दे से उठने की सकत भी किस में बाक़ी है
हमारे रिज़्क़ ऐ मा'बूद किस पत्थर में रक्खे हैं

हमें 'शहज़ाद' अपने आप से ही पूछना होगा
जहाँ में इक हमी क्यों पाँव की ठोकर में रक्खे हैं


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