वो आईनों में चेहरा ढूँढता है ख़ुदा जाने उसे क्या हो गया है इक इक चप्पे पे सौ पहरे लगे हैं परिंदा भी कहाँ पर मारता है निकल आएँगे कब इशरत-कदों से नवम्बर पत्ता पत्ता गिर रहा है वो पल आ ही गया ख़ंजर निकालो कहीं पीतल का बूढ़ा खांसता है जबीं से फूटते हैं ख़ूँ के क़तरे कहा किस ने वो पत्थर का बना है उसे अपना नहीं बस्ती का ग़म है किनारों पर अकेला जागता है निकल आएँगे बर्ग-ओ-शाख़ तन पर कोई साया रगों में हाँफता है जिसे तय करने में इक उम्र गुज़री उसी कोह-ए-गिराँ का सामना है