वो आलम था कि ख़तरे से उलझ जाना ज़रूरी था

वो आलम था कि ख़तरे से उलझ जाना ज़रूरी था
मगर जी को किसी सूरत तो बहलाना ज़रूरी था

हमारी बे-ज़बानी वर्ना इक आज़ार बन जाती
ये वहशत ही सही दुनिया को जतलाना ज़रूरी था

निपट कर दुश्मनों से दोस्तों से भी लड़ाई की
रहा इक दिल तो बेचारे को समझाना ज़रूरी था

बदन मिट्टी का ठहरा और मिट्टी एक होती है
जहाँ भी टिक गए मिट्टी से याराना ज़रूरी था

उदासी बाम-ओ-दर की दिल में ऐसे टूट कर बरसी
बदन पर मौसमों की नक़्श लहराना ज़रूरी था

शमाला हाथ में लब पर ग़ज़ल और रात भीगी सी
मिरा ख़ुद अपने ही रस्ते से हट जाना ज़रूरी था

अमीर-ए-शहर तो हिलता न था अपने ठिकानों से
हमें हर हाल में पत्थर से टकराना ज़रूरी था

बचा ले आए अपने आप को ग़ौल-ए-शग़ालाँ से
जिसे खो आए थे उस शख़्स को पाना ज़रूरी था

चले हो जानिब-ए-कअबा जो यूँ 'शाहीन' बा-वहशत
तुम्हें पहले तो ख़ुद अपने ही बुत ढाना ज़रूरी था


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