वो अंजुमन हो कि मक़्तल लहू लहू ही रहे जहाँ कहीं भी रहे हम तो सुर्ख़-रू ही रहे वो दौर है कि ग़म-ए-वस्ल-ओ-हिज्र एक तरफ़ मैं सोचता हूँ मोहब्बत की आबरू ही रहे न पूछ हम से ज़माने ने क्या सुलूक किया बहुत है दिल में अगर तेरी आरज़ू ही रहे ये मय-कदा है यहाँ ख़ून-ए-दिल की बात न कर यहाँ तो तज़किरा-ए-बादा-ओ-सुबू ही रहे शब-ए-फ़िराक़ तो आख़िर गुज़ारनी ठहरी जो वो नहीं न सही उस की गुफ़्तुगू ही रहे ख़ुदा करे न कभी लज़्ज़त-ए-सफ़र कम हो तमाम-उम्र हमें तेरी जुस्तुजू ही रहे बहार आई भी 'ख़ावर' तो क्या बहार आई चमन के फूल तो महरूम-ए-रंग-ओ-बू ही रहे