वो और हैं जिन्हें एहसास-ए-तीरगी है बहुत यहाँ तो टूटते लम्हों की रौशनी है बहुत हमें भी कर दिया शामिल उन्हीं में लोगों ने कि जिन की फ़िक्र-ओ-नज़र में शिकस्तगी है बहुत कहाँ चले गए जाँ-दाद-गान-ए-शौक़-ओ-वफ़ा हमारे होते हुए भी यहाँ कमी है बहुत वो इक ख़लिश जो तिरी याद से क़रीब भी है तमाम उम्र को मेरे लिए वही है बहुत ज़रा सी देर ही मिल कर बिछड़ने वालों को ख़याल-ए-ज़ात है कम पास-ए-तिश्नगी है बहुत तुझे ख़बर भी है रातों को जागने वाले मिज़ाज मेरी भी आँखों का शबनमी है बहुत इसी सबब से मैं अक्सर उधर नहीं जाता तुम्हारे बारे में इक राह पूछती है बहुत मैं अपने पैरहन-ए-तार-तार के क़ुर्बां कि संग-ओ-ख़िश्त की बारिश में तो यही है बहुत 'रबाब' ख़ुद को ही फ़िक्र-ओ-नज़र में रखते हुए यहाँ से गुज़रो कि हर सम्त बे-रुख़ी है बहुत