याद-ए-माज़ी कि मिरी लग़्ज़िश-ए-पा हो जैसे और ये कर्ब का एहसास सज़ा हो जैसे तुझ से दूरी किसी मज्ज़ूब की मंफ़ी बातें तेरा मिलना किसी सालिक की दुआ हो जैसे मुद्दतों से है वही शब की मसाफ़त जारी कारवाँ सम्त-ए-सफ़र भूल गया हो जैसे अब तो चेहरों से वो आसार-ए-रिफ़ाक़त भी गए हर कोई पैकर-ए-एहसास-ए-अना हो जैसे तोहमतें ऐसी कि ये सोच रहा हूँ ख़ुद भी उम्र के साथ मिरा क़द भी घटा हो जैसे मुज़्महिल सा नज़र आता है मिरा ज़ौक़-ए-जमाल वो भी इस धूप में ता-देर रहा हो जैसे कब तक आख़िर मैं चलूँ सम्त-ए-मुख़ालिफ़ की तरफ़ आने वाला भी कोई आबला-पा हो जैसे मेरी आँखों की नमी कहने लगी है कोई बात आइना मुझ से नज़र फेर रहा हो जैसे ज़िंदगी अब तिरा मौज़ू-ए-सुख़न मेरे यहाँ एक टूटा हुआ पैमान-ए-वफ़ा हो जैसे कब पता देते हैं फूलों को खिलाने वाले हम समझते हैं कि फ़ैज़ान-ए-सबा हो जैसे