वो भी रहे ग़ुरूर में हम भी थे आन में टूटी तनाब-ए-इश्क़ इसी खींच-तान में लब पर रही है उस से बिछड़ कर भी इक हँसी कुछ फूल काग़ज़ी भी रहे फूल-दान में बढ़ने लगा है रात की तन्हाइयों का शोर चुभने लगी सुकूत की आवाज़ कान में तू भी वही है मैं भी वही हूँ वही हैं सब कुछ भी नया नहीं है मिरी दास्तान में भरने लगा है आरज़ी दुनिया से मेरा दिल मैं ऊबने लगा हूँ अब इस मर्तबान में कैसे हों इक नियाम में तलवार दो सो हम अपना वजूद भूल गए उस के ध्यान में