वो एक बुझता हुआ सितारा वजूद-ओ-हसती का इस्तिआरा सुलग रही है फिर एक सिगरेट धुएँ ने फिर कोई रूप धारा भँवर निगलता रहा सफ़ीने हँसी उड़ाता रहा किनारा सुकूत-ए-शब को किया है घाइल नदी में पत्थर उठा के मारा उदास रुत की हवा ने आख़िर ये रेत पर किस का नक़्श उभारा ख़ला में चक्कर लगा रहा है बुझी हुई आग का शरारा ये दुनिया होने से थक चुकी है अब उस की तख़्लीक़ हो दोबारा