वो दिल जो था किसी के ग़म का महरम हो गया रुस्वा जहान-ए-बेश-ओ-कम में ख़्वाब-ए-आदम हो गया रुस्वा न चौंका निकहत-ए-आवारा की रूदाद पर कोई ये क्यूँ अफ़्साना-ए-पर्वाज़-ए-शबनम हो गया रुस्वा दिखाई अहल-ए-दिल को मंज़िल-ए-दार-ओ-रसन जिस ने तुम्हारी कज-कुलाही का वो आलम हो गया रुस्वा अमानत सीना-ए-लाला में किस की थी न ये पूछो कि सई-ए-पर्दा-दारी में मिरा ग़म हो गया रुस्वा है आईने की हैरानी भी अफ़्साना-दर-अफ़्साना तिरे असरार-ए-महजूबी का महरम हो गया रुस्वा पसंद आई ग़ज़ल को 'मीर' की आशुफ़्ता-सामानी तिरा राज़-आश्ना ऐ ज़ुल्फ़-ए-बरहम हो गया रुस्वा ख़बर क्या थी कि आँसू पी के भी जीना नहीं आसाँ ये ग़म कम है गुदाज़-ए-शेवा-ए-ग़म हो गया रुस्वा बसाना था किसी हीले से दुनिया के ख़राबे को ये ऐसी मस्लहत थी जिस पे आदम हो गया रुस्वा अजब तर्ज़-ए-मुदावा था हमारे चारासाज़ों का कि 'हुर्मत' इर्तिबात-ए-ज़ख़्म-ओ-मरहम हो गया रुस्वा