वो एक शख़्स जो मंज़िल भी रहगुज़ार भी है निशात-ओ-कैफ़ में डूबा है ग़म-गुसार भी है मजाज़ और हक़ीक़त का आइना बन कर हमारी ज़ात यहाँ लैल भी नहार भी है तुम्हारे कमरे में गुलशन का रंग-रूप मिला यहाँ तो मेज़ पे फूलों के साथ ख़ार भी है तुम्हारी ज़ात से इस दिल का राब्ता भी नहीं तुम्हारी याद में दिल मेरा बे-क़रार भी है फ़सील-ए-आब पे ठहरी है चाँदनी की दुल्हन शफ़क़ के शाने पे ज़ुल्फ़ों का आबशार भी है 'असद' वो कैसा तिलिस्मी वजूद रखता है उसी से बुग़्ज़-ओ-अदावत उसी से प्यार भी है