वो इक लफ़्ज़ जो बे-सदा जाएगा वही मुद्दतों तक सुना जाएगा कोई है जो मेरे तआक़ुब में है मुझे मेरा चेहरा दिखा जाएगा वो इक शख़्स जो दुश्मन-ए-जाँ सही मगर फिर भी अपना कहा जाएगा जलेगी कोई मिशअल-ए-जाँ अभी मगर फिर अंधेरा सा छा जाएगा नफ़ी-ए-जुरअत-ए-हक़-नुमाई सही मगर कब किसी से कहा जाएगा यहाँ इक शजर मुंतज़िर सा भी है अब आख़िर कहाँ तक चला जाएगा मैं वो मिशअल-ए-नीम-शब हूँ 'अमीर' जिसे कल का सूरज बुझा जाएगा