वो इंसाँ धनवान बहुत है जिस के अंदर ज्ञान बहुत है ग़ुर्बत में जीना है मुश्किल मरना तो आसान बहुत है कल-युग में सत-युग की बातें करता है नादान बहुत है यादें इस में दफ़्न हैं कितनी बूढ़े घर की शान बहुत है धनवानों की इस बस्ती में निर्धन का अपमान बहुत है शीशा-ए-दिल तो 'आज़र' साहब टूटेगा इम्कान बहुत है