तमाम रात इसी फ़िक्र में गुज़र जाए कोई तो सुब्ह मिरी ज़िंदगी सँवर जाए वो अपने बच्चों को क्या अच्छी तर्बियत देगा जो देर रात गए महफ़िलों से घर जाए ख़याल इतना रहे रेत सा ख़याल न हो बदलते वक़्त की आँधी में जो बिखर जाए उसी पे आँख बिछाए हुए मैं बैठा हूँ तुम्हारी जानिब-ए-मंज़िल जो रहगुज़र जाए वो कौन था मिरा दामन भिगो गया है जो वो किस की याद है जो बे-क़रार कर जाए कभी उमीद का दामन न छोड़ना 'आज़र' जो आस टूटी तो इंसान समझो मर जाए