वो जिन की लौ से हज़ारों चराग़ जलते थे चराग़ बाद-ए-फ़ना ने बुझाए हैं क्या क्या न ताब-ए-दीद न बे-देखे चैन ही आए हमारे हाल पे वो मुस्कुराए हैं क्या क्या रज़ा ओ सब्र ओ क़नाअत तवाज़ो ओ तस्लीम फ़लक ने हम को ख़साइल सिखाए हैं क्या क्या लरज़ गया है जहाँ दस्त-ए-कातिब-ए-तक़दीर हमारी ज़ीस्त में लम्हात आए हैं क्या क्या नक़ाब उठाओ तो क़िस्सा ही ख़त्म हो जाए तुम्हारे पर्दा ने फ़ित्ने उठाए हैं क्या क्या ज़माना हल्का सा ख़ाका न ले सका जिन का नुक़ूश दस्त-ए-क़ज़ा ने मिटाए हैं क्या क्या ये पंज-शील ये जम्हूरियत ये राय-ए-अवाम ये अहल-ए-ज़र ने खिलौने बनाए हैं क्या क्या बला-ए-जाँ हुई 'वासिफ़' की बे-गुनाही भी ज़रा सी बात में इल्ज़ाम आए हैं क्या क्या