वो जिस को याद रखना था ज़माना भूल जाती हूँ हक़ीक़त जिस में हो ऐसा फ़साना भूल जाती हूँ मिरी यादों के गुल-दानों को आख़िर क्या हुआ है ये हुआ जो पार दिल के वो निशाना भूल जाती हूँ मिरी बातों पे जब भी वो ख़फ़ा होने पे आता है मैं हँस देती हूँ पर उस को मनाना भूल जाती हूँ वो जब भी फूल ले कर राह में मौजूद होता है मुझे देखो मैं उस रस्ते पे जाना भूल जाती हूँ किसी तितली ने मेरे कान में चुपके से कह डाला तुम्हें देखूँ तो मैं अपना ठिकाना भूल जाती हूँ भरी महफ़िल में कह देती हूँ अफ़्साना मोहब्बत का गुज़रती है जो दिल पर वो छुपाना भूल जाती हूँ मैं अपने दिल में इतना नर्म गोशा रखती हूँ 'ज़र्क़ा' मोहब्बत में किसी को आज़माना भूल जाती हूँ